उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
सो वो भी जीत गया और मैं भी हारा नहीं
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ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
ये काएनात भी क्या क़ैद-ख़ाना है कोई
नज़्म
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
बादा-ओ-जाम के रहे ही नहीं
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
आइने में कहीं गुम हो गई सूरत मेरी
होश जाता रहा दुनिया की ख़बर ही न रही
मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था