चुप रहूँगा तो ज़बाँ यूँ भी रहेगी बेकार
और बोलों तो ज़बाँ काट ही ली जाएगी
क्यूँ न कुछ बोल ही लूँ मैं कि पस-ए-क़त्ल-ए-ज़बाँ
ये तो अफ़्सोस न होगा कि ज़बाँ रहते हुए
मुझ को इज़हार-ए-ख़यालात की जुरअत न हुई
मुझ से इस ज़ुल्म-ओ-सितम की भी शिकायत न हुई
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मैं तो अब शहर में हूँ और कोई रात गए
आइने में कहीं गुम हो गई सूरत मेरी
सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
हम किसी और वक़्त के हैं असीर
शरीक वो भी रहा काविश-ए-मोहब्बत में
न चाँद का न सितारों न आफ़्ताब का है
पानियों में खेल कुछ ऐसा भी होना चाहिए था
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
उस से कह दो कि मुझे उस से नहीं मिलना है
देर तक जागते रहने का सबब याद आया
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी