ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
कोई इस शहर में तलवार लिए फिरता है
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
और मुझ को सर-ए-बाज़ार लिए फिरता है
जिस्म के साथ तो रहता हूँ मैं इस पार मगर
रूह के साथ वो उस पार लिए फिरता है
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सहरा कोई बस्ती कोई दरिया है कि तुम हो
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
हमारे काँधे पे इस बार सिर्फ़ आँखें हैं
तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
शरीक वो भी रहा काविश-ए-मोहब्बत में
तेरे होने से भी अब कुछ नहीं होने वाला
जो तुम कहते हो मुझ से पहले तुम आए थे महफ़िल में
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता