अजीब फ़ुर्सत-ए-आवारगी मिली है मुझे
बिछड़ के तुझ से ज़माने का डर नहीं है कोई
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इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
न रात बाक़ी है कोई न ख़्वाब बाक़ी है
देर तक जागते रहने का सबब याद आया
शरीक वो भी रहा काविश-ए-मोहब्बत में
तुम थे तो हर इक दर्द तुम्हीं से था इबारत
ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद