ख़्वाब मैले हो गए थे उन को धोना चाहिए था
रात की तन्हाइयों में ख़ूब रोना चाहिए था
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वो भी न आया उम्र-ए-गुज़िश्ता के मिस्ल ही
ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
पैरों से बाँध लेता हूँ पिछली मसाफ़तें
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
मैं तो अब शहर में हूँ और कोई रात गए
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदर
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
बादा-ओ-जाम के रहे ही नहीं