वो भी न आया उम्र-ए-गुज़िश्ता के मिस्ल ही
हम भी खड़े रहे दर-ओ-दीवार की तरह
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तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
अब मुझ में कोई बात नई ढूँढने वालो
बादा-ओ-जाम के रहे ही नहीं
अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती
शरीक वो भी रहा काविश-ए-मोहब्बत में
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
देर तक जागते रहने का सबब याद आया
ये काएनात भी क्या क़ैद-ख़ाना है कोई
अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं
पैरों से बाँध लेता हूँ पिछली मसाफ़तें