तुम्हारी आस की चादर से मुँह छुपाए हुए
पुकारती हुई रुस्वाइयों में बैठी हूँ
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अरीज़े की डाली
वक़्त भी अब मिरा मरहम नहीं होने पाता
तुम्हारी मुंतज़िर यूँ तो हज़ारों घर बनाती हूँ
जब आह भी चुप हो तो ये सहराई करे क्या
साए का इज़्तिराब
अब तो सँवारने के लिए हिज्र भी नहीं
कोई जवाज़ ढूँडते ख़याल ही नहीं रहा
शेरी का नौहा
जाने वाले को चले जाना है
हज़ार टूटे हुए ज़ावियों में बैठी हूँ
बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है
वक़्त भी मरहम नहीं है