बरहमन कहता था बरहम शैख़ बोल उठा अहद
हर्फ़ के इक फेर से दोनों में झगड़ा हो गया
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नशात-ए-हुस्न हो जोश-ए-वफ़ा हो या ग़म-ए-इश्क़
अब ऐ बे-दर्द क्या इस के लिए इरशाद होता है
देखते रहते हैं छुप-छुप के मुरक़्क़ा तेरा
बड़ी दिलचस्पियों से सुब्ह-ए-शाम-ए-ज़िंदगी होगी
रोज़-ए-फ़िराक़ हर तरफ़ इक इंतिशार था
महफ़िल-ए-इश्क़ में जब नाम तिरा लेते हैं
तक़दीर में इज़ाफ़ा-ए-सोज़-ए-वफ़ा हुआ
तेरे जल्वों ने मुझे घेर लिया है ऐ दोस्त
अज़्म-ए-फ़रियाद! उन्हें ऐ दिल-ए-नाशाद नहीं
देखते ही देखते दुनिया से मैं उठ जाऊँगा
दिल की बिसात क्या थी निगाह-ए-जमाल में
जरस है कारवान-ए-अहल-ए-आलम में फ़ुग़ाँ मेरी