दिल की बिसात क्या थी निगाह-ए-जमाल में
इक आईना था टूट गया देख-भाल में
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चमक जुगनू की बर्क़-ए-बे-अमाँ मालूम होती है
बड़ी दिलचस्पियों से सुब्ह-ए-शाम-ए-ज़िंदगी होगी
गुनाहों पर वही इंसान को मजबूर करती है
ख़ुलूस-ए-दिल से सज्दा हो तो उस सज्दे का क्या कहना
सुबू पर जाम पर शीशे पे पैमाने पे क्या गुज़री
ख़ुद उठ के हाथ मेरे गरेबाँ में आ गए
हुस्न के दिल में जगह पाते ही दीवाना बने
जिंदान-ए-काएनात में महसूर कर दिया
परेशाँ होने वालों को सुकूँ कुछ मिल भी जाता है
मुझे फ़िक्र-ओ-सर-ए-वफ़ा है हनूज़
क्या ढूँढने जाऊँ मैं किसी को
अब क्या बताऊँ मैं तिरे मिलने से क्या मिला