रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही
मेरी बे-परवाइयों पर उस को प्यार आता गया
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'शाद' उफ़्ताद-ए-हर-नफ़स मत पूछ
इंतिज़ार था हम को ख़ुशनुमा बहारों का
कौन बुतों से रिश्ता जोड़े
अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया
वक़्त क्या शय है पता आप ही चल जाएगा
तुम सलामत रहो क़यामत तक
होंटों पर महसूस हुई है आँखों से मादूम रही है
खरी बातें ब-अंदाज़-ए-सुख़न कह दूँ तो क्या होगा
नहीं है इंसानियत के बारे में आज भी ज़ेहन साफ़ जिन का
मुस्तक़बिल रौशन-तर कहिए
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
तारे जो आसमाँ से गिरे ख़ाक हो गए