तुम सलामत रहो क़यामत तक
और क़यामत कभी न आए 'शाद'
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जहान-ए-दर्द में इंसानियत के नाते से
कहता है बाग़बान लिहाज़ा न चाहिए
अभी तो मौसम-ए-ना-ख़ुश-गवार आएगा
मुस्तक़बिल रौशन-तर कहिए
देख कर शाइ'र ने उस को नुक्ता-ए-हिकमत कहा
खरी बातें ब-अंदाज़-ए-सुख़न कह दूँ तो क्या होगा
कौन बुतों से रिश्ता जोड़े
कटती है आरज़ू के सहारे पे ज़िंदगी
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही
शॉफ़र
कहीं फ़ितरत बदल सकती है नामों के बदलने से