शैख़ पर हाथ उठाने के नहीं हम क़ाएल
हाथ उठाने की जो ठानी है तो बातिल से उठा
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ज़ब्त-ए-नावक-ए-ग़म से बात बन तो सकती है
जब चली अपनों की गर्दन पर चली
कौन बुतों से रिश्ता जोड़े
अपने जी में जो ठान लेंगे आप
खरी बातें ब-अंदाज़-ए-सुख़न कह दूँ तो क्या होगा
कभी तलाश न ज़ाए न राएगाँ होगी
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
जज़्बा-ए-मोहब्बत को तीर-ए-बे-ख़ता पाया
जो भी अपनों से उलझता है वो कर क्या लेगा
नहीं है इंसानियत के बारे में आज भी ज़ेहन साफ़ जिन का