'शाद' ग़ैर-मुमकिन है शिकवा-ए-बुताँ मुझ से
मैं ने जिस से उल्फ़त की उस को बा-वफ़ा पाया
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जब तक हम हैं मुमकिन ही नहीं ना-महरम महरम हो जाएँ
होंटों पर महसूस हुई है आँखों से मादूम रही है
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
तुम सलामत रहो क़यामत तक
मुस्तक़बिल रौशन-तर कहिए
शॉफ़र
तारे जो आसमाँ से गिरे ख़ाक हो गए
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
क़दम सँभल के बढ़ाओ कि रौशनी कम है
रंग लाएगी हमारी तंग-दस्ती एक दिन
रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही
कौन बुतों से रिश्ता जोड़े