रंग लाएगी हमारी तंग-दस्ती एक दिन
मिस्ल-ए-ग़ालिब 'शाद' गर सब कुछ उधार आता गया
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मयस्सर जिन की नज़रों को तिरे गेसू के साए हैं
शैख़ पर हाथ उठाने के नहीं हम क़ाएल
कहता है बाग़बान लिहाज़ा न चाहिए
ज़ब्त-ए-नावक-ए-ग़म से बात बन तो सकती है
होंटों पर महसूस हुई है आँखों से मादूम रही है
तुम सलामत रहो क़यामत तक
अभी तो मौसम-ए-ना-ख़ुश-गवार आएगा
इंतिज़ार था हम को ख़ुशनुमा बहारों का
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
कौन बुतों से रिश्ता जोड़े
मुस्तक़बिल रौशन-तर कहिए
वक़्त क्या शय है पता आप ही चल जाएगा