नहीं है इंसानियत के बारे में आज भी ज़ेहन साफ़ जिन का
वो कह रहे हैं कि जिस से नेकी करोगे उस से बदी मिलेगी
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क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
अभी तो मौसम-ए-ना-ख़ुश-गवार आएगा
इंतिज़ार था हम को ख़ुशनुमा बहारों का
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
जहान-ए-दर्द में इंसानियत के नाते से
औरत
कहीं फ़ितरत बदल सकती है नामों के बदलने से
कहता है बाग़बान लिहाज़ा न चाहिए
ब-पास-ए-एहतियात-ए-आरज़ू ये बार-हा हुआ
अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया
देख कर शाइ'र ने उस को नुक्ता-ए-हिकमत कहा
जब चली अपनों की गर्दन पर चली