जहान-ए-दर्द में इंसानियत के नाते से
कोई बयान करे मेरी दास्ताँ होगी
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'शाद' उफ़्ताद-ए-हर-नफ़स मत पूछ
चाहते हैं घर बुतों के दिल में हम
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
तुम सलामत रहो क़यामत तक
वक़्त क्या शय है पता आप ही चल जाएगा
अभी तो मौसम-ए-ना-ख़ुश-गवार आएगा
खरी बातें ब-अंदाज़-ए-सुख़न कह दूँ तो क्या होगा
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
ब-पास-ए-एहतियात-ए-आरज़ू ये बार-हा हुआ
क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या