कहीं फ़ितरत बदल सकती है नामों के बदलने से
जनाब-ए-शैख़ को मैं बरहमन कह दूँ तो क्या होगा
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चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
औरत
'शाद' उफ़्ताद-ए-हर-नफ़स मत पूछ
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
सितम-गर को मैं चारा-गर कह रहा हूँ
तारे जो आसमाँ से गिरे ख़ाक हो गए
क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
शैख़ पर हाथ उठाने के नहीं हम क़ाएल
जज़्बा-ए-मोहब्बत को तीर-ए-बे-ख़ता पाया
रंग लाएगी हमारी तंग-दस्ती एक दिन
वक़्त क्या शय है पता आप ही चल जाएगा