कटती है आरज़ू के सहारे पे ज़िंदगी
कैसे कहूँ किसी की तमन्ना न चाहिए
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मुस्तक़बिल रौशन-तर कहिए
देख कर शाइ'र ने उस को नुक्ता-ए-हिकमत कहा
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
औरत
जज़्बा-ए-मोहब्बत को तीर-ए-बे-ख़ता पाया
शॉफ़र
ज़ब्त-ए-नावक-ए-ग़म से बात बन तो सकती है
ब-पास-ए-एहतियात-ए-आरज़ू ये बार-हा हुआ
रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही
तारे जो आसमाँ से गिरे ख़ाक हो गए
मयस्सर जिन की नज़रों को तिरे गेसू के साए हैं
अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया