ख़ुद चराग़ों को अंधेरों की ज़रूरत है बहुत
रौशनी हो तो उन्हें लोग बुझाने लग जाएँ
Habib Jalib
Gulzar
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Wasi Shah
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Allama Iqbal
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मुझ को भी कर देगा रुस्वा वो ज़माने भर में
है कोई दर्द मुसलसल रवाँ-दवाँ मुझ में
अगर बिछड़ने का उस से कोई मलाल नहीं
हिसार-ए-ज़ात में सारा जहान होना था
अभी से छोटी हुई जा रही हैं दीवारें
इक यही सोच बिछड़ने नहीं देती तुझ से
हम अगर सच के उन्हें क़िस्से सुनाने लग जाएँ
मैं हाथ बाँधे हुए लौट आई हूँ घर में
उसी के क़ुर्ब में रह कर हरी भरी हुई है
ये तो सोचा ही नहीं उस को जुदा करते हुए
मेरे आने की ख़बर सुन के वो दौड़ा आता
ये अपने आप पे ताज़ीर कर रही हूँ मैं