अगर बिछड़ने का उस से कोई मलाल नहीं
'शबाना' अश्क से फिर आँख क्यूँ भरी हुई है
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हिसार-ए-ज़ात में सारा जहान होना था
ख़ुद चराग़ों को अंधेरों की ज़रूरत है बहुत
मुझ को भी कर देगा रुस्वा वो ज़माने भर में
ये तो सोचा ही नहीं उस को जुदा करते हुए
ये अपने आप पे ताज़ीर कर रही हूँ मैं
मेरे आने की ख़बर सुन के वो दौड़ा आता
है कोई दर्द मुसलसल रवाँ-दवाँ मुझ में
लौट आएगा किसी शाम यही लगता है
मैं हाथ बाँधे हुए लौट आई हूँ घर में
हम अगर सच के उन्हें क़िस्से सुनाने लग जाएँ
इक महकते गुलाब जैसा है