ये तो सोचा ही नहीं उस को जुदा करते हुए
चुन लिया है ग़म भी ख़ुशियों को रिहा करते हुए
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मैं हाथ बाँधे हुए लौट आई हूँ घर में
हिसार-ए-ज़ात में सारा जहान होना था
इक महकते गुलाब जैसा है
इक यही सोच बिछड़ने नहीं देती तुझ से
मुझ को भी कर देगा रुस्वा वो ज़माने भर में
ख़ुद चराग़ों को अंधेरों की ज़रूरत है बहुत
ये अपने आप पे ताज़ीर कर रही हूँ मैं
हम अगर सच के उन्हें क़िस्से सुनाने लग जाएँ
है कोई दर्द मुसलसल रवाँ-दवाँ मुझ में
लौट आएगा किसी शाम यही लगता है
अभी से छोटी हुई जा रही हैं दीवारें
अगर बिछड़ने का उस से कोई मलाल नहीं