अभी से छोटी हुई जा रही हैं दीवारें
अभी तो बेटी ज़रा सी मिरी बड़ी हुई है
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लौट आएगा किसी शाम यही लगता है
ये तो सोचा ही नहीं उस को जुदा करते हुए
अगर बिछड़ने का उस से कोई मलाल नहीं
मैं हाथ बाँधे हुए लौट आई हूँ घर में
इक महकते गुलाब जैसा है
मुझ को भी कर देगा रुस्वा वो ज़माने भर में
उसी के क़ुर्ब में रह कर हरी भरी हुई है
इक यही सोच बिछड़ने नहीं देती तुझ से
हिसार-ए-ज़ात में सारा जहान होना था
ख़ुद चराग़ों को अंधेरों की ज़रूरत है बहुत
ये अपने आप पे ताज़ीर कर रही हूँ मैं