चलते रहे तो कौन सा अपना कमाल था
ये वो सफ़र था जिस में ठहरना मुहाल था
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अक्सर अपने दर-पए-आज़ार हो जाते हैं हम
कितने अंजान जज़ीरों में मुझे ले के चला
ये सिलसिले भी रिफ़ाक़त के कुछ अजीब से हैं
अब मुझ को रुख़्सत होना है कुछ मेरा हार-सिंघार करो
इक बे-नाम सी खोज है दिल को जिस के असर में रहते हैं
बात ईमा-ओ-इशारत से बढ़ी आप ही आप
सामने इक बे-रहम हक़ीक़त नंगी हो कर नाचती है
मिरा जीना गवाही दे रहा है
कितने आसान रास्ते होते
उन की शर्मिंदा-ए-एहसान सी हो जाती है
चलती रहती है तसलसुल से जुनूँ-ख़ेज़ हवा
दिल में ख़ूँ और आँख में पानी बहुत