हवा पर है ये बुनियाद-ए-मुसाफ़िर ख़ाना-ए-हस्ती
न ठहरा है कोई याँ ऐ दिल-ए-महज़ूँ न ठहरेगा
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क्या दिखाता है फ़लक-ए-गर्म तू नान-ए-ख़ुर्शीद
ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दूता में 'नसीर' पीटा कर
ज़ुल्फ़ का क्या उस की चटका लग गया
इसी मज़मून से मालूम उस की सर्द-मेहरी है
ये चर्ख़-ए-नीलगूँ इक ख़ाना-ए-पुर-दूद है यारो
लब-ए-दरिया पे देख आ कर तमाशा आज होली का
जब कि ले ज़ुल्फ़ तिरी मुसहफ़-ए-रुख़ का बोसा
शमीम-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुअम्बर जो रू-ए-यार से लूँ
सौ बार बोसा-ए-लब-ए-शीरीं वो दे तो लूँ
हो चुकी बाग़ में बहार अफ़सोस
आ के सलासिल ऐ जुनूँ क्यूँ न क़दम ले ब'अद-ए-क़ैस
तलब में बोसे की क्या है हुज्जत सवाल दीगर जवाब दीगर