नहीं है फ़ुर्सत-ए-इक-दम प आह उस को नज़र
हबाब देखे है आँखें निकाल के कैसा
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कुछ सरगुज़िश्त कह न सके रू-ब-रू क़लम
सौ बार बोसा-ए-लब-ए-शीरीं वो दे तो लूँ
लब-ए-दरिया पे देख आ कर तमाशा आज होली का
ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दूता में 'नसीर' पीटा कर
फ़ुर्सत एक दम की है जूँ हबाब पानी याँ
न क्यूँ कि अश्क-ए-मुसलसल हो रहनुमा दिल का
की है उस्ताद-ए-अज़ल ने ये रुबाई मौज़ूँ
बयाबाँ मर्ग है मजनून-ए-ख़ाक-आलूदा-तन किस का
टाँकों से ज़ख़्म-ए-पहलू लगता है कंखजूरा
पिस्ताँ को तेरे देख के मिट जाए फिर हुबाब
सब पे रौशन है कि राह-ए-इश्क़ में मानिंद-ए-शम्अ