मैं मुँह भर क़हक़हे पे क़हक़हे
जो यूँ लगाने की मशक़्क़त
अज़-सहर ता-शाम करता हूँ दयानत से
तो मज़दूरी भी वाजिब सी मिले कोई
बहुत दिन से मिरी आँखें
कभी भर भर नहीं रोईं
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
Parveen Shakir
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सुन रखा था तजरबा लेकिन ये पहला था मिरा
महसूर था
ख़ला सा ठहरा हुआ है ये चार-सू कैसा
किताब गुमराह कर रही है
नसीब-ए-चश्म में लिक्खा है गर पानी नहीं होना
फ़क़त ज़मान ओ मकाँ में ज़रा सा फ़र्क़ आया
मौसम-ए-हिज्र में
हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ
तज्ज़िया
हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई
मैं नहीं रोता हूँ अब ये आँख रोती है मुझे
ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है