फ़क़त ज़मान ओ मकाँ में ज़रा सा फ़र्क़ आया
जो एक मसअला-ए-दर्द था अभी तक है
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मता-ए-पास-ए-वफ़ा खो नहीं सकूँगा मैं
समुंदर तिश्नगी वहशत रसाई चश्मा-ए-लब तक
ग़ुबार-ए-दर्द में राह-ए-नजात ऐसा ही
वो एक लम्हा-ए-रफ़्ता भी क्या बुला लाया
याद की बस्ती का यूँ तो हर मकाँ ख़ाली हुआ
मिरे सुख़न पे इक एहसान अब के साल तो कर
कार-ए-बेहूदा
कार-ए-जहाँ दराज़ है
ब-राह-ए-रास्त नहीं फिर भी राब्ता सा है
पतंग उड़ाने से पहले
मैं वापस आऊँगा
किताब गुमराह कर रही है