ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है
वो सादा-लौह हमें चाहता अभी तक है
Gulzar
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जो इस बरस नहीं अगले बरस में दे दे तू
मैं वापस आऊँगा
बस सलीक़े से ज़रा बर्बाद होना है तुम्हें
मैं नहीं रोता हूँ अब ये आँख रोती है मुझे
रह-ए-वफ़ा में रहे ये निशान-ए-ख़ातिर बस
रगों में रात से ये ख़ून सा रवाँ है क्या
फ़क़त ज़मान ओ मकाँ में ज़रा सा फ़र्क़ आया
महसूर था
हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ
किताब गुमराह कर रही है
पतंग उड़ाने से पहले
तज्ज़िया