वक़्त को क्यूँ भला बुरा कहिए
तुझ को होना ही था जुदा हम से
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बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूँ है परेशाँ
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
ख़जिल चराग़ों से अहल-ए-वफ़ा को होना है
दाम-ए-उल्फ़त से छूटती ही नहीं
नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता
हज़ार बार मिटी और पाएमाल हुई है
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
अक्स-ए-याद-ए-यार को धुँदला किया है
अहद-ए-हाज़िर की दिल-रुबा मख़्लूक़
दिल में उतरेगी तो पूछेगी जुनूँ कितना है
एक और मौत
इक सिर्फ़ हमीं मय को आँखों से पिलाते हैं