बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूँ है परेशाँ
जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा
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हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है
नहीं रोक सकोगे जिस्म की इन परवाजों को
फ़रेब-दर-फ़रेब
एक सियासी नज़्म
ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से
साए
जो होने वाला है अब उस की फ़िक्र क्या कीजे
शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है
पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात
कहने को तो हर बात कही तेरे मुक़ाबिल