शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है
सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा
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ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें
निकला है चाँद शब की पज़ीराई के लिए
जहाँ मैं होने को ऐ दोस्त यूँ तो सब होगा
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
गर्दिश-ए-वक़्त का कितना बड़ा एहसाँ है कि आज
ग़म की दौलत बड़ी मुश्किल से मिला करती है
पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात
वो बेवफ़ा है हमेशा ही दिल दुखाता है
आहट जो सुनाई दी है हिज्र की शब की है
एक नज़्म
जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है
बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूँ है परेशाँ