ग़म की दौलत बड़ी मुश्किल से मिला करती है
सौंप दो हम को अगर तुम से निगहबानी न हो
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उस को किसी के वास्ते बे-ताब देखते
हर तरफ़ अपने को बिखरा पाओगे
दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही
नज़राना तेरे हुस्न को क्या दें कि अपने पास
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
शम-ए-दिल शम-ए-तमन्ना न जला मान भी जा
अब तो ले दे के यही काम है इन आँखों का
मोम के जिस्मों वाली इस मख़्लूक़ को रुस्वा मत करना
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वापसी
ये क्या है मोहब्बत में तो ऐसा नहीं होता