हर तरफ़ अपने को बिखरा पाओगे
आइनों को तोड़ के पछताओगे
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दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही
बहुत शोर था जब समाअ'त गई
जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
वामांदगी-ए-शौक़
कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ
क्यूँ आज उस का ज़िक्र मुझे ख़ुश न कर सका
चलो तुम को....
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई
पहले सफ़्हे की पहली सुर्ख़ी