शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है
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कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का
नहीं है मुझ से तअ'ल्लुक़ कोई तो ऐसा क्यूँ
फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
कहने को तो हर बात कही तेरे मुक़ाबिल
इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से
शम-ए-दिल शम-ए-तमन्ना न जला मान भी जा
उम्मीद ओ बीम