शहर-ए-उम्मीद हक़ीक़त में नहीं बन सकता
तो चलो उस को तसव्वुर ही में तामीर करें
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ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में
खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं
शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे
अजीब काम
वक़्त को क्यूँ भला बुरा कहिए
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का
नफ़ी से इसबात तक
रात जुदाई की रात
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बे-ज़बानों को