ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बे-ज़बानों को
सुनाने के लिए जब कोई दास्ताँ न रही
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आँखों को सब की नींद भी दी ख़्वाब भी दिए
उम्र-सफ़र जारी है बस ये खेल देखने को
उस को किसी के वास्ते बे-ताब देखते
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है
उम्मीद ओ बीम
क्यूँ आज उस का ज़िक्र मुझे ख़ुश न कर सका
ख़ौफ़ का क़हर
जो होने वाला है अब उस की फ़िक्र क्या कीजे
अब जी के बहलने की है एक यही सूरत
ख़्वाब
ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में