उम्र-सफ़र जारी है बस ये खेल देखने को
रूह बदन का बोझ कहाँ तक कब तक ढोती है
Gulzar
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बे-ताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हम को
सफ़र का नश्शा चढ़ा है तो क्यूँ उतर जाए
आसमाँ कुछ भी नहीं अब तेरे करने के लिए
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही
मुझ को ले डूबा तिरा शहर में यकता होना
वो मोड़
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है
उस को किसी के वास्ते बे-ताब देखते
गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम
नए अहद का नया सवाल