सफ़र का नश्शा चढ़ा है तो क्यूँ उतर जाए
मज़ा तो जब है कोई लौट के न घर जाए
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सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
अपनी याद में
पल भर में कैसे लोग बदल जाते हैं यहाँ
ग़म की दौलत बड़ी मुश्किल से मिला करती है
ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें
हवा का ज़ोर ही काफ़ी बहाना होता है
बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूँ है परेशाँ
कौन सी बात है जो उस में नहीं
किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया
पहले सफ़्हे की पहली सुर्ख़ी
तुझे भूल गया कभी याद नहीं करता तुझ को
एक काली नज़्म