सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का
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जिस्म की कश्ती में आ
ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा
अजीब काम
आख़िरी साँस
एक ख़ुश-ख़बरी
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो
उस को किसी के वास्ते बे-ताब देखते
ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है
फ़ैसले की घड़ी
जहाँ में होने को ऐ दोस्त यूँ तो सब होगा
फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे