शम्अ की लौ ने जब आख़िरी साँस ली
आख़िर-ए-शब
निगाहों से गिरने लगी ओस
पहलू बदलने लगी
राह की जागती गर्द
सोने लगी रात
और ख़ामुशी गीत बुनने लगी
नक़्श-ए-बे-ख़्वाब चलने लगे
हाल ओ माज़ी कहीं आँख मलने लगे
मंज़िलों के निशाँ चीख़ते रह गए
Mohsin Naqvi
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उम्र का बाक़ी सफ़र करना है इस शर्त के साथ
निकला है चाँद शब की पज़ीराई के लिए
भूली-बिसरी यादों की बारात नहीं आई
हुजूम-ए-दर्द मिला ज़िंदगी अज़ाब हुई
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
एक ख़ुश-ख़बरी
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
वो कौन था वो कहाँ का था क्या हुआ था उसे
मौत
उम्र-सफ़र जारी है बस ये खेल देखने को
साए
वामांदगी-ए-शौक़