हँसो कि सुर्ख़ ओ गर्म ख़ून फिर सफ़ेद हो गया
हँसो कि नुक़्ता-ए-उमीद फिर ख़ला के दाएरे में आज क़ैद हो गया
हँसो कि दश्त-ए-आरज़ू में थक थका के सब बगूले सो गए
हँसो कि शहर ज़िंदगी का बे-फ़सील हो गया
हँसो कि साया-ए-सलीब फिर तवील हो गया
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सफ़र का नश्शा चढ़ा है तो क्यूँ उतर जाए
ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से
कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ
सैगंधी
ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें
रात जुदाई की रात
तुझ से बिछड़े हैं तो अब किस से मिलाती है हमें
देख दरिया को कि तुग़्यानी में है
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है
आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई
हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए