ये बात रोज़-ए-अज़ल से तय है
ज़मीन जिस्मों का बोझ उठाएगी
आसमाँ पर रहेंगी रूहें
मगर कोई है जो ये बताए
हमारी परछाइयों की क़ब्रें
कहाँ बनेंगी?
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नफ़ी से इसबात तक
वो कौन था वो कहाँ का था क्या हुआ था उसे
जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है
एक ख़ुश-ख़बरी
जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा
अक्स को क़ैद कि परछाईं को ज़ंजीर करें
ये जगह अहल-ए-जुनूँ अब नहीं रहने वाली
तुझे भूल गया कभी याद नहीं करता तुझ को
तम्बीह
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
चुपके से इधर आ जाओ
नज़राना तेरे हुस्न को क्या दें कि अपने पास