ज़िंदगी ये तिरा एहसान बहुत है मुझ पर
'आज़मी' ज़ीस्त है हर मोड़ पे जो साथ मिरे
उस की यादों में बसर होते हैं दिन रात मिरे
एक एहसान नया कर मुझ पर
ज़िंदगी, मौत से तू मेरी सिफ़ारिश कर दे
मुझ को मिलना है 'वहीद-अख़्तर' से
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सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए
ज़वाल की हद
अजीब काम
नहीं है मुझ से तअ'ल्लुक़ कोई तो ऐसा क्यूँ
आहट जो सुनाई दी है हिज्र की शब की है
खेल का नतीजा
गुम-शुदा
चलो तुम को....
ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है
निस्बत रहे तुम से सदा हज़रत निज़ामुद्दीन-जी
हज़ार बार मिटी और पाएमाल हुई है