ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है
साए में उस के बैठ के रोना फ़ुज़ूल है
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अक्स-ए-याद-ए-यार को धुँदला किया है
ख़्वाब का दर बंद है
मिरे सूरज आ! मिरे जिस्म पे अपना साया कर
जहाँ में होने को ऐ दोस्त यूँ तो सब होगा
इन दिनों मैं भी हूँ कुछ कार-ए-जहाँ में मसरूफ़
एक और साल गिरह
या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब है
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
लोग सर फोड़ कर भी देख चुके
मिशअल-ए-दर्द फिर एक बार जला ली जाए
रात जुदाई की रात
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें