ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते
इक पल भी अगर भूल से हम सो गए होते
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तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा देख के ये हैराँ है
रात को दिन से मिलाने की हवस थी हम को
किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया
उम्मीद ओ बीम
ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
आरज़ू
जहाँ में होने को ऐ दोस्त यूँ तो सब होगा
ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है
मौत
मंज़र गुज़िश्ता शब के दामन में भर रहा है
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को