रात को दिन से मिलाने की हवस थी हम को
काम अच्छा न था अंजाम भी अच्छा न हुआ
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किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया
एक और मौत
ला-ज़वाल सुकूत
हवा का ज़ोर ही काफ़ी बहाना होता है
मैं अकेला सही मगर कब तक
नज़राना तेरे हुस्न को क्या दें कि अपने पास
शहर-ए-उम्मीद हक़ीक़त में नहीं बन सकता
हर ख़्वाब के मकाँ को मिस्मार कर दिया है
रात जुदाई की रात
अजीब काम
आँखों में तेरी देख रहा हूँ मैं अपनी शक्ल
हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है