शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को
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बुनियाद-ए-जहाँ में कजी क्यूँ है
गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम
ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा
हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
काग़ज़ की कश्तियाँ भी बहुत काम आएँगी
ज़वाल की हद
आरज़ू
जान-बूझ कर समझ कर मैं ने भुला दिया
फ़रेब-दर-फ़रेब
आँखों में तेरी देख रहा हूँ मैं अपनी शक्ल
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ