काग़ज़ की कश्तियाँ भी बहुत काम आएँगी
जिस दिन हमारे शहर में सैलाब आएगा
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उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए
तुझे भूल गया कभी याद नहीं करता तुझ को
एक सियासी नज़्म
ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में
हवा का ज़ोर ही काफ़ी बहाना होता है
वक़्त को क्यूँ भला बुरा कहिए
तेरे सिवा भी कोई मुझे याद आने वाला था
इन दिनों मैं भी हूँ कुछ कार-ए-जहाँ में मसरूफ़
एतराफ़
ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते
ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से
खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं