मेरा अज़्म इतना बुलंद है कि पराए शोलों का डर नहीं
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है ये कहीं चमन को जला न दे
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उजाले गर्मी-ए-रफ़्तार का ही साथ देते हैं
सर-निगूँ कर ही दिया शौक़-ए-जबीं-साई ने
वज्ह-ए-क़द्र-ओ-क़ीमत-ए-दिल हुस्न की तनवीर है
सुब्ह का अफ़्साना कह कर शाम से
शोख़ नज़रों में जो शामिल बरहमी हो जाएगी
जब कभी हम तिरे कूचे से गुज़र जाते हैं
बे-कसी से मरने मरने का भरम रह जाएगा
हज़ार क़ैद-ए-जवाँ से छुट कर बहार का आसरा करेंगे
ज़ौक़-ए-गुनाह ओ अज़्म-ए-पशेमाँ लिए हुए
तकमील-ए-शबाब चाहता हूँ
लम्हात-ए-याद-ए-यार को सर्फ़-ए-दुआ न कर
ग़म-ए-जहाँ के फ़साने तलाश करते हैं