शदीद गर्मी में कैसे निकले वो फूल-चेहरा
सो अपने रस्ते में धूप दीवार हो रही है
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रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे
किसी का साथ मियाँ जी सदा नहीं रहा है
अगर हमारे ही दिल में ठिकाना चाहिए था
तुम्हारे बा'द बड़ा फ़र्क़ आ गया हम में
मसअला ख़त्म हुआ चाहता है
अब बंद जो इस अब्र-ए-गुहर-बार को लग जाए
कुछ लोग हैं जो झेल रहे हैं मुसीबतें
तुम शुजाअ'त के कहाँ क़िस्से सुनाने लग गए
अल्फ़ाज़ नर्म हो गए लहजे बदल गए
दुखों में उस के इज़ाफ़ा भी मैं ही करता हूँ